विस्तार : सीक्रेट ऑफ डार्कनेस (भाग : 13)
विस्तार किसी अंधेरी गुफा में एक पांव पर खड़ा होकर आँख बन कर हाथ जोड़े ध्यान की मुद्रा में खड़ा था। उसका तन बदन पसीने से सरोबर हो चुका था। गुफा के अंदर सिर्फ और सिर्फ घना अंधेरा ही था। की आँखों से आँसू बह रहे थे जैसे उसे किसी ने बहुत गहरा जख्म दिया हो।
"तुम किससे भाग रहे हो पुत्र?" उसके मस्तिष्क में एक स्वर उभरा।
"हर बार मुझे ही क्यों चुना जाता है? और मैं चाहकर भी अपना अतीत, अपना अस्तित्व क्यों नही भूल पा रहा हूँ।" विस्तार गिड़गिड़ाकर रोते हुए कह रहा था।
"हम अपनी नियति से नही भाग सकते पुत्र! तुम इस अंधेरे की शक्ति के कुंजी मात्र हो परन्तु याद रखना कुंजी का कार्य क्या होता है!" उस स्वर में अद्भुत आकर्षण था। विस्तार न चाहते हुए भी खींचा चला जा रहा था।
"परन्तु…"
"किसी किंतु-परन्तु का समय शेष नही है पुत्र! अंधेरे की महाशक्तियां अब जागृत हो चुकी हैं। संसार को आने वाले किसी भी खतरे का आभास नही है, पर एक बात याद रखना यदि सूर्य काला पड़ गया तो इस दुनिया को कोई नही बचा पायेगा।" समझाने का प्रयास करते हुए चेतावनी भरे लहजे में बोला।
"इसका मतलब .!" विस्तार चकित होता जा रहा था।
"तुम्हारी समस्त स्मृतियां नही लौटी है पुत्र! परन्तु तुम्हें विशुद्ध काली ऊर्जा से बने होने के बाद भी उजाले का साथ देना होगा।" विस्तार के मस्तिष्क में किसी स्त्री का सुनम्य एवं ममतामयी स्वर गूँजा।
"मैं कुछ भी नही समझ पा रहा। मेरी शक्तियों के प्रयोग करते ही नराक्ष मुझे अपने वश में करना चाहता है यदि ऐसा हो गया तो मैं कुछ भी नही कर सकूंगा।" विस्तार बेबस हो चुका था। उसके शरीर से पसीना बहकर नीचे जमती जा रही थी।
"तो फिर शीघ्र करो पुत्र! ग्रेमन भी अपनी शक्तियां हासिल करने वाला है, आखिरी कड़ी को जुड़ने से रोको पुत्र अन्यथा बड़ा अनर्थ हो जाएगा। अब हमारी सारी उम्मीदें सिर्फ तुमपर हैं।" दोनो ने एक साथ कहा। "ब्रह्मेश! अपने कार्य में अवश्य सफल होना पुत्र!" दोनों ने उसे आशीर्वाद दिया। विस्तार को उनकी एक झलक दिखी, एक टूटे पेड़ के नीचे बैठे हुए, स्त्री का सिर पुरूष के गोद में था, दोनों के चेहरे एवं बदन पर गहरे जख्म थे। वह उन्हें पहचान नही पाया परन्तु उस पुरुष का अक्स उसी से मिलती जुलती थी।
"माताश्री-पिताश्री!" अचानक विस्तार जोर से चीख उठा। उसकी चीखों से बर्फ की वह गुफा दहल गयी। आँखों से आँसुओ की धार बह निकली, वे दोनों उसके माता-पिता थे इसीलिए उनके स्वर में विस्तार के लिए प्रेम, ममता एवं अपनत्व का आकर्षण था।
"मैं कोशिश कर रहा हूँ पर मैं एक अंधेरे का प्राणी बन चुका हूँ। विशुद्ध काली ऊर्जा से बना एक जीव, फिर इसका ही विरोध करना बहुत मुश्किल हो जाता है।" विस्तार अब भी चिल्ला रहा था। उसके स्वर गुफा से टकराकर पुनः उच्चरित हो रहे थे। विस्तार के कारण हिम का वह शिखर पिघलने लगा, विस्तार उनमें ही कही दबकर रह गया।
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माणा से थोड़ी ही दूर एक गांव में, पहाड़ो की गोदियों में एक और प्यारा सा गांव हँसता-खेलता फल-फूल रहा था। नदी के किनारे बने कच्चे-पक्के घर, छोटे तालाब और खेत के क्यारियों की मेढ़ पर उगे लाल-पीले रंग के पौधे उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे।
यूँ तो उत्तराखंड ही प्रकृति के अनूठे उपहार के रूप में प्रस्तुत है जहां प्रकृति को बिल्कुल पास से छूकर उसकी खूबसूरती को महसूस किया जा सकता है। ऐसी अनुपम कल्पना जैसे किसी चित्रकार ने अपनी कलाकृति को बड़े ही प्यार से साजो-श्रृंगार कर सजाया हो, उसे बड़े ही प्यार से उकेरकर उसमें चुन-चुनकर रंगों को भरा हो।
"ओये! अब किधर जा रही तू, सुबह सुबह बिन खाये पिये कही भी निकल लेती है!" एक स्त्री अपने दरवाजे से बाहर झांकते हुए एक लड़की को आवाज देकर बोली। लड़की ने अपनी सायकल को रोका और पीछे के बल चलते हुए सायकल लेकर घर के सामने आ धमकी। उसका मुँह फूलकर कुप्पा हो गया था, गालों पर लाली थी परन्तु आँखों में क्रोध उमड़ रहा था। लाल रंग के टॉप और नीले जीन्स वह बहुत खूबसूरत लग रही थी। उसका गुस्सा उसकी खूबसूरती को और बढ़ा रहा था।
"अब क्या हुआ माते! जल्दी जागो तो प्रॉब्लम, लेट जागो तो प्रॉब्लम, घर में रहो तो प्रॉब्लम, बाहर जाओ तो प्रॉब्लम आखिर ऐसा क्या करूँ जिससे आपको प्रॉब्लम न हो! आखिर ऐसा तो कुछ होगा जिसमें आपको प्रॉब्लम नही होगी।" लड़की भड़कते हुए तेज स्वर में बोली, आस पड़ोस के कुछ लोग उसे देखने लगे और कुछ बस इतना ही देखकर लौट गए।
"हो गया तेरा रोज का भाषण! इसीलिए तो लड़कियों को इतना ज्यादा नही पढ़ाना चाहिए। जब अपनी माँ को नही सुनती तो किसी और की क्या सुनेगी।" माँ दरवाजा बन्दकर अंदर जाने लगी।
"लो अब तो माते सेंटी हो गयी। ओ माते! देख पड़ोसियों की भीड़ जुट गई है इस शो देखने को, दरवाजा खोल मैं खाना ठूस लूँगी।" अपने आस-पास के लोग को देख मुँह बिचकाते हुए वह लड़की बोली।
"ठीक है अंदर आ!" उस स्त्री ने तेजी से दरवाजा खोला वह लड़की धड़ाम से अंदर आ गिरी, क्योंकि उसने दरवाजे पर अपना सारा भार लगा दिया था।
"क्या सुपर एंट्री दी है आपने माते!" अपने कपड़ों को झाड़ते हुए वह लड़की बोली। बाहर कुछ लोग हँस रहे थे, वह बाहर निकलकर आँखे तरेरी तो सब वहां से भाग गए।
"सम्भलकर नही चल सकती क्या? हे भगवान क्या होगा इस लड़की का?" स्त्री ने अपना माथा पीटते हुए कहा।
"ओ मेरी प्यारी माँ!" लड़की अपनी माँ के गाल पकड़कर खिंचने लगी।
"हट, बियाह करने की उम्र हो गयी है पर हरकते बस शैतानों वाली ही करेगी।" स्त्री ने उसके हाथ हटाते हुए बोली।
"हाँ वो तो मैं हूँ ही।" अपने हाथ उस स्त्री के तरफ बढ़ाते हुए लड़की बोली। "शैतान हीहीही…!"
"तो आज कहाँ जाने का प्लान था? जब से आई है एक दिन भी चैन से नही बैठ सकती रोज रोज कहीं न कहीं जाना हो रहता है।" स्त्री ने झिड़कते हुए पूछा।
"बस ऐसे ही नदी के किनारे वाले बाग को देखने जा रही थी पर आपको तो बस खिलाने की पड़ी रहती है, देखो न बस एक वीक में ही मोटी हो गयी हूँ।" अपने पेट पर हाथ फेरते हुए वह लड़की बोली।
"इसे मोटा होना कहते हैं? हमारे यहां के तो पतले भी इससे तो मोटे ही रहते होंगे।" उस स्त्री ने व्यंग्य किया।
"क्या माते! आप तो सीरियस हो गयी, चलो अब भोजन दो।" रसोई में काठ के ऊँचे आसन पर बैठते हुए वह लड़की बोली। "और ये पिता जी कहाँ गए सुबह से दिखाई न दे रहे!" लड़की ने बाहर चारों तरफ नजर फिराते हुए कहा।
"अरे मुखिया हैं गांव के, कुछ न कुछ काम रहता ही है न!" वह स्त्री उखड़े स्वर में बोली।
लड़की जल्दी-जल्दी खाना खाकर हाथ मुँह धोकर एक कपड़े से हाथ पोंछते हुए बाहर निकली।
"अच्छा माते! अब चलती हूँ जल्दी से आ जाऊंगी।" बाहर का दरवाजा बंद करते हुए वह लड़की बोली। सायकल पर सवार हुई और तेजी से चलते हुए नदी की ओर के सड़क पर आ गयी जहां उसके दो दोस्त उसका इंतजार कर रहे थे।
"ओये सोना! कहाँ रह गयी थी हमारी सोनपरी।" लाल रंग की सायकल पर बैठी लड़की ने व्यंग्य करते हुए पूछा।
"अरे वो माते हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गयी थीं, इसलिए मुझे मुँह धोकर आना पड़ा।" सोना मुँह बिचकाते हुए बोली।
"अरे छोड़ न अलका! क्यों सवालों का उल्कापिंड गिरा रही है, चल इसे बाग दिखाकर आते हैं। नही तो ये पता नही फिर कब दर्शन देगी।" नीले रंग के सायकल वाली लड़की ताना मारते हुए बोली।
"बात तो सही है पूजा! बड़े लोगो के पास वक़्त होता ही कहा है!" अलका सहमत होते हुए बोली।
"अच्छा ये बताओ मैं यहां बाग देखने के लिए आई हूँ या तुम्हारी बकवास सुनने!" सोना खीझकर बोली। अलका और पूजा ने इशारों में बात की और बाग की ओर बढ़ चले। थोड़ी ही देर में वे तीनों एक खूबसूरत बाग में थीं।
जहां एक ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्षों का समूह था वही नदी के किनारे छोटे-छोटे फूलों के पौधे थे, जो नीले-पीले नारंगी रंग में खिले हुए थे। नदी के किनारे दुब घास फैली हुई थी, सोना अपना सैंडल उतार कर चलने लगी, दुब घास की नर्मता उसके मुलायम पैरों को सुकून दे रहा था। तीनो सखियां अपने बचपन की यादें ताजा करने में जुट गई, सोना साल भर में कुछ ही दिनों के लिए घर वापिस आती थी इसलिए उसकी सखियां भी बहुत खुश थी और रोज गांव घूमने साथ जाती थी।
"ये फूल तुम्हारे जाने के बाद लगाए गए और आने से पहले खिल भी गए हैं।" अलका एक नीले रंग के फूल को तोड़कर सूंघते हुए कहा।
"पेड़-पौधों में भी जान होती है, ऐसा बताया था जगदीश चंद्र बसु ने
जो पढ़ लिखकर भी ना जाने, वह मानव नही पशु है।" अलका के फूल तोड़ने से सोना रुष्ट होकर बोली।
"अरे सॉरी यार! अब से नही तोड़ूंगी। आई प्रॉमिस!" अलका अपने कान पकड़ते हुए बोली। पूजा यह देखकर अपने मुँह पर हाथ रखकर हँसने लगी। सोना उसकी ओर देखकर आँखे तरेरी।
"अच्छा तूने ये शेरो-शायरी कहाँ से सीखी?" पूजा हँसते हुए बोली पर सोना ने कोई जवाब नही दिया उसका ध्यान बड़े वृक्षों के समूह की ओर था जहां से चर्र-चर्रर की आवाज आ रही थी। वे तीनों उस ओर बढ़ी, अचानक एक पेड़ उनके सामने भरभराकर गिरा।
"कौन है?" सोना चीखी। उधर से कोई उत्तर नही आया, अगले ही क्षण एक और पेड़ भरभराकर गिरा, सोना आगे बढ़ती जा रही थी।
"मुझे यह सब ठीक नही लग रहा, घर चल तेरे पापा को बताएंगे।" पूजा घबराते हुए बोली।
"डरने वाली कोई बात नही है, यहां कोई छिपकर पेड़ काट रहा है।" सोना आगे बढ़ते हुए बोली।
"कोई यहां पेड़ क्यों काटेगा! यह पेड़ तो पूरे जंगल में पाया जाता है।" अलका कुछ सोचकर पूछी।
अचानक वहां अंधेरा छाने लगा, एक के बाद एक सारे पेड़ गिरने लगे। सोना आगे बढ़ती जा रही थी पर अब आगे बढ़ने के लिए मार्ग शेष न था। अलका और पूजा उसे जबरदस्ती खिंचकर सड़क की ओर ले जाने लगी। वहां की क्यारियां सूख गई, फूल मुरझाकर काले हो गए।
"यह क्या हो रहा है? कौन हो तुम?" सोना चीखकर बोली। सामने अंधेरा गहराता जा रहा था, सोना और उसकी सखियां भी उसी अंधेरे में खो गयी।
"चल भाग!" अलका सोना का हाथ पकड़कर खिंचते हुए बोली पर जाना किधर है यह किसी को समझ न आ रहा था।
अचानक उन्हें महसूस हुआ कि कुछ उनके पैरों से लिपट रहा है, पूजा धड़ाम से नीचे गिर गयी। किसी को कुछ दिखाई नही दे रहा था, अंधेरे में डरावना शोर गूँजने लगा,अलका की डर के मारे हालत खराब हो गयी। अचानक उन्हें धप्प-धम्म की तेज आवाजें सुनाई देने लगी, साथ में पेड़ो की डालों के लहराने का स्वर भी गूंज रहा था।
"पेड़ चल रहे हैं?" पूजा जमीन पर खिसकते हुए बोली।
"क्या??" अलका को अपने कानो पर यक़ीन नही हुआ।
"पेड़ चल रहे हैं।" सोना बिल्कुल शांत स्वर में बोली। अंदर से वह भी बहुत घबराई और डरी हुई थी परन्तु वह अपनी बहादुरी वाली इमेज खराब नही करना चाहती थी।
"पेड़ो में जीवन होता है उसका अर्थ ये तो नही कि वो चलने लगे।" पूजा चीखकर बोली, सोना उसे उठाने की कोशिश कर रही थी परन्तु उसे किसी ने कसकर पकड़ा हुआ था।
"तुम दोनों भागो।" पूजा रोते हुए बोली, उस मजबूत पकड़ के कारण उसकी त्वचा कट गई थी।
"हम तुम्हें छोड़कर नही जा सकते।" अलका उसे खिंचते हुए बोली, अचानक उसके पैरों में कुछ लिपटा और बढ़ते हुए उसपर शिकंजा कसने लगा।
"तो फिर कोई भी नही बच पायेगा।" पूजा दर्द भरे स्वर में कराहते हुए बोली।
सोना अवाक खड़ी थी, एक पेड़ की डाली उसकी ओर बढ़ी, सोना ने घबराहट से चीखना चाहा पर उनकी चीख न निकल सकी, वह डाल उसके बिल्कुल पास आ गयी थी, सोना ने उसके नरम पत्तों के स्पर्श को महसूस किया, इस स्पर्श ने उसे अंदर से डरा दिया पर वह अब भी बूत बनी खड़ी थी।
अचानक दूसरी ओर से कुछ टकराया, एक पल को वहां तेज प्रकाश हुआ, ऐसा लगा मानो शॉर्ट-सर्किट हुआ हो। पूजा और अलका की पकड़ ढीली हुई, दोनों के बदन कई जगह से कट चुके थे, दोनों बुरी तरह घायल थी। सोना के पैरों में कई घाव थे वो अब भी बूत बनी खड़ी थी।
क्रमशः…..
Kaushalya Rani
25-Nov-2021 10:11 PM
Nice part
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Farhat
25-Nov-2021 06:32 PM
Good
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Aliya khan
21-Jul-2021 12:37 AM
👏👏👏👏
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